प्रस्तावित तलाक कानून के कारण पति की संपत्ति लुटने के कागार पे है!
सरकार की अति सक्रियता हिन्दू विवाह अधिनियम को संशोधित करने की परेशानी और अचम्भे में डालती है. इस सरकार का कार्यकाल एक साल के भीतर ही ख़त्म होने वाला है लिहाज़ा ये अति सक्रियता आत्मघाती है. सम्पति के बटवारे के बारे में इसकी टेढ़ी चाल भारतीय परिवारों के विघटन का कारण बन सकती है. इस बटवारे वाले सेक्शन को लेकर जो उहापोह स्थिति उत्पन्न हो गयी है सरकार के भीतर उससे स्पष्ट है कि इस सरकार के मंत्री खुद भ्रम के स्थिति में है और वो एकमत रूख नहीं रखते है इस कानून में निहित संपत्ति बंटवारे और मुआवजे से सम्बंधित बिन्दुओ पर. हिंदू विवाह अधिनियम’ की धारा 13-बी और ‘विशेष विवाह अधिनियम’ की धारा 28 आपसी सहमति से तलाक के अंतर्गत संपत्ति बंटवारे/ मुआवज़े पर जो सरकार के भीतर अन्तर्विरोध उभर कर आये है उससे ये समझ में आता है कि सरकार में शामिल मंत्रियो से लेकर अन्य पार्टी के सांसदों को ज्यादा कुछ नहीं पता है इस कानून के मूल तत्वों का. इससे ये सहज ही समझा जा सकता है कि जनता जिसका वो प्रतिनिधित्व करते है उनमे कितना भ्रम व्याप्त होगा। फिर भी ये सरकार इस संशोधन को इतनी जल्दबाजी में कानूनी जामा पहनाना चाहती है ये हैरान करता है.
सरकार की अति सक्रियता हिन्दू विवाह अधिनियम को संशोधित करने की परेशानी और अचम्भे में डालती है. इस सरकार का कार्यकाल एक साल के भीतर ही ख़त्म होने वाला है लिहाज़ा ये अति सक्रियता आत्मघाती है. सम्पति के बटवारे के बारे में इसकी टेढ़ी चाल भारतीय परिवारों के विघटन का कारण बन सकती है. इस बटवारे वाले सेक्शन को लेकर जो उहापोह स्थिति उत्पन्न हो गयी है सरकार के भीतर उससे स्पष्ट है कि इस सरकार के मंत्री खुद भ्रम के स्थिति में है और वो एकमत रूख नहीं रखते है इस कानून में निहित संपत्ति बंटवारे और मुआवजे से सम्बंधित बिन्दुओ पर. हिंदू विवाह अधिनियम’ की धारा 13-बी और ‘विशेष विवाह अधिनियम’ की धारा 28 आपसी सहमति से तलाक के अंतर्गत संपत्ति बंटवारे/ मुआवज़े पर जो सरकार के भीतर अन्तर्विरोध उभर कर आये है उससे ये समझ में आता है कि सरकार में शामिल मंत्रियो से लेकर अन्य पार्टी के सांसदों को ज्यादा कुछ नहीं पता है इस कानून के मूल तत्वों का. इससे ये सहज ही समझा जा सकता है कि जनता जिसका वो प्रतिनिधित्व करते है उनमे कितना भ्रम व्याप्त होगा। फिर भी ये सरकार इस संशोधन को इतनी जल्दबाजी में कानूनी जामा पहनाना चाहती है ये हैरान करता है.
ये बताना आवश्यक रहेगा कि सरकार ने संशोधन को पास कराने की हड़बड़ी में
लॉ कमिशन और संसदीय स्थायी समिति को पूरी प्रक्रिया से बाहर रखा है. इसके
खतरनाक दुष्परिणाम होंगे और भारत के युवक-युवतियों का भविष्य अँधेरे के
गर्त में जा सकता है. ये निश्चित है कि अगर ये बिल अपने प्रस्तावित स्वरूप
में पास हो गया तो ये एक और उदाहरण होगा गैर जिम्मेदाराना तरीके से
अस्तित्व में लाये गए कानून का जो प्रक्रियागत खामियों से लैस होगा। लिहाज़ा
सेव इंडिया फॅमिली फाउंडेशन (SIFF) हिंदी विवाह अधिनियम (संशोधन) बिल,
२०१०, को अपने वर्तमान स्वरुप में अस्वीकार करती है और इसको वापस लेने का
आग्रह करती है. इसके इस स्वरूप में पारित कराने का तीव्र विरोध करती है.
सेव इंडिया फॅमिली फाउंडेशन (SIFF) का ये भी कहना है कि न्यायधीशो को
इस कानून के तहत असीमित अधिकार देना किसी तरह से भी जायज नहीं है खासकर
महिलाओ से संबधित मासिक गुज़ारा भत्ता /मुआवज़े के निर्धारण में. लिहाज़ा सेव
इंडिया फॅमिली फाउंडेशन (SIFF) अपनी असहमति दर्ज कराती है.
कुछ आवश्यक बिंदु:
इस कानून को महिलाओ के पक्ष में बताना खतरनाक है क्योकि भारत में सत्तर
प्रतिशत परिवार गरीब वर्ग में है जो ज्यादातर क़र्ज़ में डूबे है और जिनके
पास संपत्ति नाम की कोई चीज़ नहीं है, जिनके ऊपर पहले से ही बेटी बेटो के
भरण पोषण और उनके शादी ब्याह जैसी जिम्मेदारियां है. ये कानून केवल एक ख़ास
वर्ग में सिमटी धनी महिलाओ को ध्यान में रखकर अस्तित्व में आया है. भारतीय
जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी जैसे राजनैतिक दलों को
इसके विरोध में खड़े होकर इसके खिलाफ वोटिंग करनी चाहिए। ऐसा इसलिए कि इस
कानून के पारित होने के बाद तलाक के प्रतिशत में अगले दस सालो में लभग तीस
प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है.
प्रस्तावित हिन्दू विवाह संशोधन को सम्पूर्णता में देखे जाने की जरूरत
है जैसे कि संयुक्त रूप से बच्चो का भरण पोषण, बच्चों की जिम्मेदारियों के
वहन से सम्बंधित कानून की रौशनी में. सिर्फ मासिक भत्ते के निर्धारण में
सक्रियता दिखाना उचित नहीं। क्या पति ताउम्र भत्ता गुज़ारा देता रहेगा
संपत्ति बंटवारे के बाद भी जिसका हिस्सा खुद की संपत्ति और विरासत में मिली
संपत्ति से मिलकर बनता है? ये कुछ अति महत्त्वपूर्ण बिंदु है जिनको
संज्ञान में लेना आवश्यक है और इन्हें उनके बीच चर्चा में शामिल करना है जो
इन कानूनों से प्रभावित हो रहे है. अव्यवस्थित रूप से निर्धारित बिन्दुओ
को कानून बना के पास करना बेहद गलत है.
सेव इंडिया फॅमिली फाउंडेशन (SIFF) का सरकार को निम्नलिखित सुझाव:
सरकार इस कानून को तुरंत वापस लें और मौजूदा संसदीय अधिवेशन में इसे
ना पेश करे. सरकार इस कानून की भाषा में परिवतन करे और इस लिंग आधारित
भेदों से ऊपर करे जिसमे पति (husband) और पत्नी (wife) को ” जीवनसाथी” (
spouse) और स्त्री (man) और पुरुष (woman) को ” व्यक्ति” (person) में
परिवर्तित किया जाए. इसके साथ ही किसी भी जीवनसाथी को तलाक़ अर्जी का विरोध
करने की छूट हो कानून की समानता के रौशनी में. सरकार इस बात का भी निर्धारण
करे कि अर्जित संपत्ति के निर्माण में पत्नी का क्या सहयोग रहा है या पति
के परिवार के भौतिक सम्पदा के विस्तार में क्या योगदान है. इसको निर्धारित
करने का सूत्र विकसित किया जाए. इसके निर्धारण में शादी के अवधि को ध्यान
में रखा जाए, बच्चो की संख्या का ध्यान रखा जाए, और क्या स्त्री कामकाजी है
या घरेलु. अगर स्त्री तीन बच्चो की माता है, वृद्ध सदस्यों की देखरेख का
जिम्मा ले रखा है, तो उसका योगदान अधिक है बजाय उस स्त्री के जो कामकाजी है
और जिसके कोई बच्चे नहीं है एक साल की अवधि में.
इस
सूत्र के मुताबिक ही किसी व्यवस्था को संचालित किया जाए जीवनसाथी को मासिक
भरण पोषण के सन्दर्भ में, मुआवज़े के सन्दर्भ में या या किसी और समझौते के
सन्दर्भ में. न्यायधीश महोदय इस सूत्र की रौशनी में अपने विवेक का इस्तेमाल
कर उचित फैसले लें. लिहाज़ा इस सूत्र के अंतर्गत अगर स्त्री के सहयोग का अनुपात पति
या उसके परिवार के संपत्ति के अर्जन में पूरी संपत्ति के मूल्य से अधिक है
तो उसे पूरी संपत्ति पर हक दिया जा सकता है. अगर पत्नी इसको लेने से इनकार
कर सकती है तो वो मासिक गुज़ारे भत्ते वाले विकल्प को अपना सकती है. कहने
का तात्पर्य ये है कि संपत्ति में हिस्सेदारी के बाद उसका मासिक गुज़ारे
भत्ते को लेते रहने का अधिकार ख़त्म हो जाता है. दोनों विकल्पों का लाभ लेने
का हक जीवनसाथी को नहीं मिलना चहिये.
सरकार को इस सूत्र को अस्तित्व में लाने के लिए एक कमेटी या योजना आयोग का गठन करना चाहिए.
सरकार को सयुंक्त भरण पोषण का अधिकार बच्चे के बायोलॉजिकल अभिभावक
द्वारा और बच्चे के ग्रैंड पेरेंट्स से स्थायी संपर्क को अनिवार्य कर दिया
जाए, जब तक कि कोर्ट इसके विपरीत राय ना रखती हो. इसके अनुपालन के अभाव को
आपराधिक जुर्म के श्रेणी में रखाजाए। अगर कोई अभिभावक इस सयुंक्त भरण पोषण
के जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रहा है या ग्रैंड पेरेंट्स से संपर्क में बाधा
डाल रहा है तो इसको अपराध माना जाए.
सरकार ये सुनिश्चित करे कि न्यायालय को अपने विवेक के अधिकार
का इस्तेमाल करने की सीमित आज़ादी हो संपत्ति बटवारे के निर्धारण में, मासिक
गुज़ारे भत्ते के सन्दर्भ में और बच्चे के पालन पोषण सम्बन्धी मामलो में.
बहुत ज्यादा अधिकार न्यायालय को देने का मतलब ये होगा कि कोर्ट का
अवांछित हस्तक्षेप मामले को और जटिल बना देगा या कोर्ट का गैर जिम्मेदाराना
रूख स्थिति को और विकृत कर देगा। अधिकतर पुरुष फॅमिली कोर्ट पे भरोसा नहीं
करते, क्योकि इस तरह की कोर्टपुरुषो के अधिकार के प्रति असंवेदनशील रही
है. न्यायालय वर्षो लगा देती है पति को अपने बच्चो से मिलने का फैसला देने
में और तब तक बच्चे की स्मृति पिता के सन्दर्भ में धूमिल पड़ जाती है.
सरकार ये सुनिश्चित करे कि महिला पैतृक संपत्ति और वहा अर्जित संपत्ति
में जो हिस्सेदारी बनती हो उसे अधिग्रहित करे. उसे अपने कब्जे में लें.
सरकार को हिन्दू विवाह अधिनियम में संशोधन करके महिला को अपने पिता के घर
में रहने का स्थान सुनिश्चित करे , ताकि कम अवधि वाली शादी में अलगाव की
सूरत में उसे रहने की जगह उपलब्ध हो. अगर माता पिता इस सूरत में उसे पति के
घर जाने के लिये विवश करते है तो इसे अपराध की श्रेणी में रखा जाए. इसी
प्रकार अगर महिला के माता पिता या महिला के भाई उसे पैतृक संपत्ति/ अर्जित
संपत्ति में हिस्सा देने से इनकार करते है तो इसे असंज्ञेय प्रकार का अपराध
माना जाए.
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